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बाल श्रम : एक “शर्म”

Kuch to pado
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आज विश्व भर में बालश्रम एक गंभीर मुद्दा है. जहा विकसित देशो में बल श्रमिक नगण्य नहीं तो लगभग नहीं के बराबर है वही अविकसित या विकासशील देशो, जिनमे ज्यादातर अफ्रीका और एशिया महाद्वीप के राष्ट्र है, में आंकड़े चौकाने वाले है. वही एक अखबार के अनुसार भारत में अभी भी लगभग ५० लाख बाल मजदूर कार्यरत है, जो विश्व में सबसे ज्यादा है.
इन आंकड़ो पर कुछ जिम्मेदार लोग ये कहकर अपना पल्ला झाड़ सकते है की “हमारे पडोसी देशो की भी यही स्थिति है”, लेकिन भारत के लिए ये स्थितिया बिलकुल भी शुभ संकेत नहीं है. यु तो हमारे यहाँ बालश्रम से सम्बंधित कानून भी मौजूद है, परन्तु ताकतवरो द्वारा कानून को किस प्रकार से तोडा मरोड़ा जाता है इसका तो शायद सभी को अंदाजा होगा. उन कानूनों को लागू करने की जिन पर जिम्मेदारी होती है वो कितने जिम्मेदार है ये भी हम जानते है.
सवाल है की क्या कभी हम इस प्रश्न के “क्यों” में गए है? क्या वजह है एक बच्चे को उस बचपन में काम करने की जब उसके खेलने, पढने, सीखने के दिन होते है? जवाब मिलेगा “पेट की आग” जो सबसे बलवती होती है. ऐसे कितने ही बाल श्रमिक है जो अपने और अपनों की पेट की आग बुझा रहे है, वे जिनके वयस्क सदस्य काम करने में अक्षम है. हलाकि कही हमें इसके अपवाद भी देखने मिलते है जब जबरन ही बच्चो को उनके सगो या सौतेलो द्वारा काम पर भेजा जाता है, या किसी गैंग के द्वारा जबरन इनसे भिक्षा या दुसरे अनेतिक काम कराये जाते है, निश्चय ही ऐसे लोगो को उचित दंड दिया जाना चाहिए.
जहा तक हमारी पुलिस का सवाल है तो वो या तो इसको रोकने के लिए कम है या फिर इसको रोकने के लिए उसके पास इच्छाशक्ति का अभाव है. ऐसी स्थिति में ये ज़रूरी है की सरकार द्वारा एक विशेष विभाग या लोगो का गठन किया जाये जो केवल इसी काम को अंजाम दे, इसमें खाद्य सुरक्षा कानून भी कुछ हद तक अपनी भूमिका निभा सकता है, जिसके लागू होने से बच्चो को कम से कम भोजन के लिए ऐसे काम न करने पड़े. इसके अलावा ऐसे बच्चो को उनके काम धंधो से छुड़ाकर उनको पुनर्वासित करने की भी जिम्मेदारी सरकार को उठानी होगी जिसमे किसी सामाजिक संस्था का भी सहयोग लिया जा सकता है.

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