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ये कैसी स्वीकारोक्तियां?

Kuch to pado
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अभी हाल ही में एक प्रदेश के मुख्य मंत्री ने स्वयं पहल करते हुए अपनी व अपने परिवार की चल व अचल संपत्ति का विवरण अपनी निजी वेबसाइट पर डाला जो वाकई में एक स्वागतयोग्य कदम है. ऐसे ही नज़ारे हमें चुनावो के समय देखने मिलते है जब चुनाव आयोग के निर्देशों के अंतर्गत विभिन्न प्रत्याशियों को अपनी संपत्ति का विवरण आम करना पड़ता है. कहनो को तो यह जानकारिया पूरी कानूनी प्रक्रियाओ के तहत होती है, लेकिन शायद ही इन संपत्तियों की पुष्टि करने के लिए कोई कदम उठाये जाते हो. हर अगले चुनावो में इन प्रत्याशियों के संपत्तियों में अस्चार्यजनक तरीको से लगभग १०० प्रतिशत से ज्यादा का उचल देखने को मिलता है, और यह हाल केवल राष्ट्रीय स्तर के नेताओ का ही नहीं बल्कि स्थानीय स्तर पर देखने को मिलता है. इसमें अस्चार्यचाकित करने वाली बात ये होती है की कैसे इन जनप्रतिनिधियों की संपत्ति इतनी गुना बढ़ जाती है? जबकि कानूनन इन्हें केवल जनप्रतिनिधि बनने के एवज में कुछ हज़ारों (हलाकि यह “कुछ” नहीं होती है) की तनख्वाह तथा कुछ सुविधाए प्राप्त होती है. न तो इन मंत्रियो के पास कोई बहुत बड़ा पुश्तैनी कारोबार ही होता है, हलाकि आजकल जनप्रतिनिधियों का आजकल शिक्षा में काफी दखल देखा जा रहा है, जिसमे जाहिर है इनका उद्देश्य बच्चो को अच्छी तालीम देना कम और अधिक से अधिक पैसा बनाना ज्यादा होता है. यू तो देश के हर नागरिक के आय के स्रोत का पता लगाया जाता है, जो ज़रूरी भी है लेकिन क्या उसी तर्ज पर इन जनसेवको की संपत्तियों के स्त्रोतों का पता लगाना की संवेधानिक संस्था का दायित्व नहीं है?

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