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राजनीति में जातिवाद – कांटेस्ट

Kuch to pado
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हमारे देश में यों तो “जातिवाद” एक नया जुमला नहीं है. यह एक सदियों से चली आ रही प्रथा है. ये कुछ के लिए एक कुप्रथा है तो कुछ के लिए सुप्रथा. अगर एतिहासिक तथ्य पर जाये तो हमेशा पढने में यही आया है की भारत में जातिवाद का उद्गम आक्रमणकारी आर्यों द्वारा हुआ जिन्होंने देश की जातियों को विजित कर और अपने से कमतर मानते हुए वर्ग विभाजन करवाए. कही कही यह भी लिखा गया है की वर्ण व्यवस्था हमारे पुराने ऋषि मुनियों की दी हुई व्यवस्ता थी जिसमे विभिन्न कामो के लिए विभिन्न लोगो का चयन किया जाता था. हो सकता है की उन्होंने कम को आधार बनाकर ये श्रेणिया निर्धारित की हो लेकिन वक्त के साथ साथ एक जाति विशेष के घर में जन्म लेने वाले बच्चे को उसी जाति का मन गया जिस जाति विशेष के घर में उसका जन्म हुआ है, हलाकि उस जाति विशेष से सम्बंधित पारंगतता का फिर कोई विशेष महत्व नहीं रहा.
समय में चाहे परिवर्तन हो गया हो लेकिन उस प्रथा की निरंतरता हमारे समाज में अभी भी व्याप्त है. हलाकि जैसा कहा जाता है की हर किसी का दिन आता है उसी तर्ज पर इन सताए हुए लोगो का समय भी आया और इन जातिवाद के अंतर्गत शोषित लोगो के जीवन में भी बदलाव आया. भारतीय समाज में अलग अलग समय पर आये महापुरुषों, विचारको और समाजसेवियों की फैलाई हुई जागरूकता रंग ली और हमारे देश में विभिन्न कानूनों के माध्यम से इनको भी समानता प्राप्त होने लगी. हलाकि ये भी सत्य है की भले ही इन नीची जाति के लोग आर्थिक रूप से उची जाति के समकक्ष और कही कही उन से भी उचे हो गए है, लेकिन मानसिक रूप से ये अभी भी बहुत से उची जाति के लोगो के लिए उसी “स्तर” के है.
अगर हम आज के परिपेक्ष्य में राजनीती में जातिवाद की बात करे तो हम पाते है की विभिन्न राजनितिक दल समाज में इसी विभाजन को भुनाने में लगे है. हम में से शायद सभी ने अंग्रेजो की फूट दलों और राज करो की नीति के बारे में सुना होगा, हलाकि अँगरेज़ तो चले गए लेकिन न केवल उनके कानून अभी तक जिंदा है बल्कि उनकी नीतियों को भी इन नेताओं द्वारा अपनाया जा रहा है. देश में न तो जातियों की कमी है और न पार्टियों की, ऐसे में ये छोटे छोटे दल जाति विशेष के लोगो की विभिन्न प्रलोभनों से अपने पाले में खीचने का प्रयास करती रहती है. क्योंकि अब स्थिती उलट गई है और अब शोषित वर्ग को भी पढाई से लेकर रोज़गार तक काफी सहुलियते मिलने लगी है उससे आकर्षित हो न केवल हिन्दू समाज में बल्कि विभिन्न धर्म के लोगो में भी अपने आपको नीची जाति में बताने का चलन चल निकला है. इसी चाहत का फायदा ये छोटे दल उठाने के प्रयास में रहते और इनके वोटो के अधर पर सत्ता के अन्दर दखल देने को प्रयासरत रहते है. विडम्बना तो अब ये हो गयी है की बड़े और पुराने राजनितिक दलों ने भी इनकी देखा देखी जाति का कार्ड खेलने लगे है शायद उनकी ये मजबूरी “रेस” में टिके रहने के लिए हो. जाति विशेष के मतदाताओं को न केवल तरह तरह के वादों से रिझाया जा रहा है बल्कि अमुख जाति बाहुल्य स्थानों पर विभिन्न दलों द्वारा उस जाति को प्रत्याशी के तौर पर भी उतारा जा रहा है फिर चाहे वो उम्मीदवार दागी ही क्यों न हो.
फिलहाल ये तो पक्का है की जाति विशेष को लाभ देने के लिए जो भी कानून बनाये गए है या जो भी वाडे विभिन्न दलों द्वारा किये जाते है वो भी उस जाति के केवल रसूकदार लोगो को ही मिल पते है न की उस जाति विशेष के सब लोगो को. ज़रूरी है की किसी विशेष जाति को देख कर नहीं बल्कि एक लक्ष्य बना कर हर जाति धर्म से चुन कर असहाय और शोषित लोगो के उत्थान की सोच हो, इस से भी ज्यादा ज़रूरी है की जनता ऐसे नेताओं और पार्टियों को पहचान कर इनको अपने अमूल्य वोट से वंचित रखे. ये ही उनके और देश के लिए उचित होगा.

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