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लोकतंत्र पर तमाचा!

Kuch to pado
Kuch to pado
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ये तो जाहिर था की शरद पवार पर पड़े तमाचे की हर दल द्वारा निंदा की जाएगी. वैसे तो इस घटना का प्रोत्साहन तो नहीं किया जा सकता है लेकिन शायद ही इससे कोई इनकार कर सकता है की ये केवल एक हरविंदर का गुस्सा नहीं है ये भारत के उस वर्ग के लोगो का गुस्सा है जो हरविंदर की तरह छोटी सी आमदनी में किसी तरीके से अपना गुजर बसर कर रहे है लेकिन सरकार ऐसे भी उनने जीने नहीं दे रही. कभी सब्जी, कभी पेट्रोल, कभी गैस के दाम बिना जनता की सहमति के बड़ा दिए जाते है. क्या ये लोकतंत्र है? ये हाथ किसी लोकप्रियता पाने के चलते नहीं उठा है. तमाचा मारने के बाद के शब्द गवाह है की ये जनता का आक्रोश है. जनता क्या इसीलिए सरकार चुनती है की वो कंपनियो को बेरोकटोक अपनी मनमर्जी करने दे? या इसीलिए की संसद में बस हंगामा करने दिया जाये? या भ्रस्ताचारियो और कालाबाजारियो को खुली छुट देने के लिए?
शरद pawaar का तमाचे का शिकार होना भी कोई बहुत ज्यादा आश्चर्यजनक नहीं है क्योंकि ये कृषि कम और क्रिकेट मंत्री ज्यादा लगते है. इन्हें नहीं मालूम की अनाज के दाम क्यों बढ़ रहे है? इन्हें नहीं मालूम की किसान क्यों आत्महत्या कर रहे है? है इन्हें ये मालूम है की बी सी सी आई की सालाना इनकम क्या है. इतना ही नहीं सरकार के द्वारा किसी भी वस्तु का दाम बढाने पर ये उनके पीछे रहते है.
कुछ नेता अफ़सोस जाता रहे है ही “समाज कहा जा रहा है” काश ये राजनीती पर अफ़सोस जताते की वो कहा जा रही है.
बेहतर हो को इसे सभी दल एक चेतावनी के रूप में लेते हुए वर्तमान राजनितिक हालातो पर मंथन करे और सच्चे लोकतंत्र की स्थापना में जुटे नहीं तो ऐसी घटनाये और भी हो सकती है.

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